आचार्य श्री 108 विशद सागर जी महाराज
  • णमो अरिहंताणं णमो सिद्धाणं णमो आयरियाणं णमो उवज्झायाणं णमो लोए सव्व साहूणं
  • णमो अरिहंताणं णमो सिद्धाणं णमो आयरियाणं णमो उवज्झायाणं णमो लोए सव्व साहूणं

आचार्य श्री 108 विशद सागर जी महाराज

भारत का हृदय प्रदेश कहलाने का श्रेय मध्यप्रदेश को है । उसी पर्वतीय पठारों के बीच चंदेल राजाओँ द्वारा निर्मित छतरपुर जिला है कुपीग्राम, जिसकी तहसील बिजावर है । ग्रामीण परिवेश की भाषा में कहलाने वाली लघु सरिता वराना के किनारे बसा है यह कुपीग्राम । जिसकी अदभुत शोभा हमारे मन को बरबस ही मोह लेती है । इसी ग्राम में तिथि चैत्र कृष्णा चतुर्दशी 11 अप्रैल 1964 को श्री नाथूराम जी एवं श्रीमती इन्दरदेवी से एक अदभुत बालक का जन्म हुआ जिसका नाम रमेश रखा गया । जिसकी सुंदरता को देखकर ज्योतिषियों ने कह दिया था की यह जगत तारणहार होगा । समय अपनी गति से बढ़ रहा था, बचपन खेलकूद में बीता और शिक्षा प्राप्ति की और कदम बढ़ाया।

पहली से पांचवी तक की शिक्षा कुपीग्राम में और आठवीं से बारहवीं तक की बिजावर में और कॉलेज की पढाई छतरपुर में एम. ए. पूर्वाद्ध किया । जिस उम्र में लोग भोग का जीवन जीते हैं, उसी उम्र में आपने योग का जीवन स्वीकार किया । वैराग्य प्राप्ति की कोई उम्र नहीं होती ।

वर्ष 1992 में पूज्य गुरुदेव विराग सागर जी महाराज ग्रीष्मकालीन वाचना के लिए पधारे । उसी समय रमेश ने संघ में आहार शुद्धि के सभी साधुओ के कमण्डल भरना शुरू किया । एक दिन गर्मी में पूज्य गुरुदेव आहार चर्या को गए तो चौके में अशुद्धि होने से लौट आये उस दिन नगर सेठ का चौका था । वह बहुत दुखी हुए उस दिन चिंतन किया की जिनके पास सबकुछ है वह आज गर्मी में नंगे पैर चलकर उन्हें आहार कराने के लिए उत्सुक है और गुरु जी के चौके से लौट जाने पर वह दुखी हो रहे हैं । जब आहार देने वालों को इतना पुण्य प्राप्त होता है कि वह मोक्ष प्राप्त कर सकता है तो स्वयं आहार लेने वालों को अति शीघ्र मोक्ष मिल जाएगा और इस चिंतन से जीवन की धारा ही बदल गयी और योग की धारा में कदम बढ़ा दिया । आपने 8 नवम्बर 1992 में ब्रह्मचर्य व्रत धारण किया ।

अभी ज्यादा समय नहीं हो पाया की दीक्षा का बीज अंकुरित हो गया । दिसंबर 1993 में दो प्रतिमा के व्रत सम्मेद शिखर में आचार्य विमल सागर महाराज से लिये । माघ शुक्ल पंचमी 18 दिसंबर 1993 श्रेयांसगिरि में ऐलक दीक्षा स्वीकार की । साधु जीवन में भी अनेक संघर्ष, उपसर्ग को सहन किया, किन्तु हार नहीं मानी । बढ़ते गए मोक्ष मार्ग़ में, 8 फरवरी 1996 में मुनि दीक्षा ली ।

समय व्यतीत होता गया । आपकी चर्या , ज्ञान , ध्यान , वात्सल्य योग्यता देखकर आचार्य श्री भरतसागर जी महाराज ने 13 फरवरी 2005 को मालपुरा नगर में आचार्य पद प्रदान किया । इस पद पर रहकर आपने अनेक पंचकल्याणक, प्रतिष्ठाएं, जीर्णोद्धार, शास्त्र लेखन, विधान आदि धार्मिक कार्यों का आयोजन किया । साहित्य के क्षेत्र में आपने जो अभूतपूर्व कार्य किया है, वह अविस्मरणीय है ।

संदेश
  • इंसान अपने जीवन मूल्यों को समझ ले तो उसका जीवन बदल जायेगा, विशद शांति को प्राप्त करेगा ।
  • जीवन अपनी गति से निरंतर चल रहा है, जिसकी आहट भी उसे नहीं मिल पाती है किन्तु अंत जब आता है तो पश्चाताप के अलावा कोई चारा नहीं रहता ।
  • संसार में दो प्रकार के लोग है, कुछ जिंदगी को जीकर जिंदगी का आनंद लेते है और कुछ जिंदगी के दिनों को काट रहे है ।
  • जीवन तो हमारे हाथ है किन्तु मृत्यु और जन्म हमारे हाथ नहीं, जीवन साथी का चुनाव तो हम कर सकते है किन्तु माता पिता का चुनाव भाग्य आधीन है ।
  • 'इंसान का जीवन' एक प्राकृतिक उपहार है, जिसके समान प्रकृति में और कोई सुंदर चीज नहीं है । हमें इस उपहार का उपकार करना है किन्तु वह विशद आचरण से ही होगा ।
  • किसी आत्मा की सबसे बड़ी गलती अपने असल रूप को ना पहचानना है, और यह केवल आत्म ज्ञान प्राप्त कर के ठीक की जा सकती है।
  • भगवान् का अलग से कोई अस्तित्व नहीं है, हर कोई सही दिशा में सर्वोच्च प्रयास कर के देवत्त्व प्राप्त कर सकता है ।